बुधम शरणम् गच्छामि”
” “धम्मम शरणम् गच्छामि”
“संघम शरणम् गच्छामि”
बाल्य काल से ही पाठ्य पुस्तकों में बुध के जीवन चरित्र संबंधी जब लेख पढ़ता था तभी से लेख के आरम्भ में लिखीं उपरोक्त तीन पंक्तियां मुझे बहुत आकर्षित करती थी। मैं इन पंक्तियों को पढ़ तो लेता था पर उनके अर्थ जानने के लिए मै हमेशा आतुर रहता था।कौन थे ये ” महत्मा बुध,क्यों उन्होंने अपना राजसी भरा जीवन त्यागा”? विभिन्न पुस्तकों में लिखे उनसे संबंधी लेख, उनके त्याग और परोपकार की भावना के वर्णन से ही भरे रहते थे।समय अंतराल के पश्चात् वयस्क होने पर भी बुध से संबंधी अनेकों पुस्तकों के लेखों को पढ़कर उनके कार्यस्थल ,विशेष कर ज्ञान प्राप्ति के स्थल के बारे में मेरी जिज्ञासा निरंतर बढ़ती ही गई ,ओर फिर एक दिन अभी हाल में पढ़ी एक पत्रिका के लेख ने मेरा ध्यान खींचा कि ” महात्मा बुद्ध भगवान विष्णु के अवतार ” हैं,तो मै सोच में पड़ गया। अगर बुध विष्णु के अवतार है तो हम सनातन धर्म के अनुयाई इन की पूजा अर्चना घरों से लेकर मंदिरों तक कहीं भी नहीं करते हैं ,मगर क्यों ? इस विषय में जब मैने अपने आस पास के गुनी जनो से जान कारी लेनी चाही तो समझ में आ गया कि मेरी तरह वे ही नहीं अपितु अधिकांश लोग भी बुध के बारे में जन्म से लेकर मृत्यु तक तो सब जानते है किन्तु बे भगवान विष्णु के अवतार है और अगर वे हैं तो क्यों है इसके बारे में उनकी जानकारी भी अल्प ही है। तब मेरी जिज्ञासा ने मुझे इतना बेचैन कर दिया कि मैने निश्चय किया कि मै बुध के, भगवान बुद्ध बनने तक की यात्रा , और उनके विष्णु अवतार बनने के कारणों की खोज में निकल पड़ा।वैसे मुझे इस संबंध में ढेरों पुस्तकों से सहायता प्राप्त हो सकती थी परन्तु मै उनके जीवन के कुछ अनछुए वृतांत को स्वयं साक्षात अनुभव करने हेतु अग्रसर हो गया, उस स्थान जहां पर वे बुध से माहत्मा बुध बने वह स्थान था ” बोध गया” ! बोध गया तक की रात्रि भर की ट्रेन की यात्रा में , मैअपने अन्य सहयात्रियों की अपेक्षा , मन मस्तिष्क में उमड़ते विचारों के कारण जागता रहा।क्या कारण था कि सारी राजसी सुविधाओं के मध्य पला बढ़ा एक राजकुमार सब कुछ त्याग कर सन्यासी बनने के कांटों भरे मार्ग पर अग्रसर हो गया।शायद उन्हें मानव जीवन की व्यर्थता का एहसास पूरी तरह हो गया था, अतः मानव जीवन के इस संसार में आने के उद्देश्य की खोज हेतु ही वे सब वेभव त्याग कर महत्मा बनने के कंटीले मार्ग पर बढ़ चले होंगे , या शायद वे अपनी नियति के स्वयं नियंता बनना चाह रहे होंगे !
प्रातः 7 बजे जब ट्रेन ने गया स्टेशन पर उतारा तो स्टेशन पर बुध ओर बोध गया से संबंधित एक या दो ही बोर्ड लगे थे ,लेकिन हिन्दू कर्म कांडों से संबंधित चित्रों एवम् गया के हिन्दू मंदिरों के बोर्डों से समूचा स्टेशन परिसर भरा हुआ था।प्रधान मंत्री मोदी जी की स्वच्छता का प्रभाव स्टेशन पर तो पूर्ण रूप से दिखाई दे रहा था परन्तु स्टेशन परिसर से बाहर निकलते ही समझ में आ गया कि ये गया शहर भी आम हिन्दू तीर्थ स्थानों की तरह ही है। आवारा घूमती गाएं,कुत्ते,बेतरतीब खड़े रिक्शा,ऑटो,के साथ साथ पांडे पुजारी जैसे सब यात्रियों पर टूट पड़ने को तैयार थे।लंबी मोल भाव के पश्चात् आखिर कार 20 किलो मीटर दूर बोध गया हेतु रवाना हो गए। बेतरतीब, भीड़ भरे शहर पार करते करते थोड़ी देर बाद एक अजीब सी रेतीली,सूखी लेकिन बड़ी बड़ी घास से भारी एक नदी हमारे साथ साथ चलती दिखाई दी।ये फल्गु नदी थी।विस्मय हुआ कि जैसे ही गया शहर से बाहर निकले सड़क पर बड़ी बड़ी बसें, और कारे नजर आने लगी।इस शेष 15 किलो मीटर मार्ग के दोनों ओर बुध के विभिन्न नाम वाले होटल,रेस्टोरेंट तथा मंडप की एक अंतहीन श्रृंखला आरम्भ हो गई।जैसे ही हम बोध गया पहुंचे,आस पास का दृश्य ही बदल गया। वातावरण में गूंजते अनजानी भाषा के स्वर,अनजानी भाषा में लिखे बोर्ड एक नई दुनिया की रचना सी कर रहे थे।ऑटो से उतरने के पश्चात् गाइडों के झुण्डों ने हमारा घिराव सा कर दिया।एक से बढ़ कर एक लक्जरी होटल,गेस्ट हाउस की जैसे भरमार थी,क्या ये सन्यासी बुध का ही शहर था या कोई आधुनिक शहर,हम अभी अनिर्णय की स्थिति में ही थे कि एक बुध धर्म की वेशभूषा धारण किए एक होटल के एजेंट की और हमारा ध्यान गया।तुरंत निर्णय किया कि जब बुध के लोक में आए हैं तो बुध के रंग में ही रंगेंगे, अतः उसके साथ उसके बताए होटल की ओर बढ़ गए।होटल के किराए भी किसी बड़े शहरों की ही तरह बड़े थे।यह होटल ही नहीं अपितु आस पास की सभी तरह कि दुकानें आदी भी जैसे बुध के ही रंग, और भाषा में रंगे हुए थे।
थोड़े विश्राम के पश्चात् जब होटल से बाहर आए तो विश्वास ही नहीं हुआ कि ये गया शहर का एक उपनगर है,जहां तक दृष्टि जारही थी यात्रियों के झुंड के झुंड दिखाई दे रहे थे,मगर एक अंतर साफ दिखाई दे रहा था कि अधिकांश यात्री विदेशी ही हैं !अब किधर जाएं,ऐसा कोई संकेत या बोर्ड भी नहीं दिखाई दे रहा था,दिखाई दे रहा था तो इधर से उधर आते जाते व्यक्तियों के झुंड, अतः ऐसी परिस्थितियों में जो आम भारतीय करता है वहीं हमने भी किया।एक ई रिक्शा को रोका और उसे पूरा बोध गया घुमाने के लिए सौदा बाज़ी की।राजी तो होना ही था ,तो हम चल दिए भगवान बुध की दुनिया में झांकने !
रिक्शा चालक के अनुसार पूरे बोध गया में लगभग 50 के करीब बोध स्तूप या कहें मंदिर है , इनमें से 31 स्तूपों का निर्माण विदेशी सरकारों ने किया है जिनमे चीन,जापान,कोरिया, थाईलैण्ड ,बर्मा,नेपाल, सिक्किम,श्रीलंका और बहुत सारे अन्य देशों ने किया है,शेष कुछ बड़े बुध के अनुयाइयों ने किया है।हम एक एक कर के उपरोक्त वर्णित स्तूपों में ज्ञान प्राप्ति की चिन्हों की खोज में चल दिए।
अब ये स्तूप चाहे चीन,जापान या अन्य किसी भी देश ने बनवाए हो,सबके मध्य एक विशेष समानता थी कि स्तूप के मध्य में पीले रंग की विशाल काय ,महात्मा बुद्ध की मूर्ति ध्यान अवस्था में, आंखे बंद किए,मंद मंद मुस्कुराते हुए एक अलौकिक आभा और शांति के विहंगम रूप का अनुभव प्रदान कर रही थी।प्रत्येक स्तूप अपने निर्माण करता देश की पूजा की विधि और पूजन में उपयोग होने वाली सामग्री से भरा हुआ था।
एक और विशेष बात को हमने चिन्हित किया की प्रत्येक स्तूप जितना भी हो सकता था इतने ही रंगो ओर रंगीन सजावटी सामग्रियों जैसे कृत्रिम विभिन्न प्रकार के पुष्प,भिती चित्र और महात्मा बुद्ध के जीवन दर्शन को दर्शाती मूर्तियों आदी से भी भरे हुए थे।आश्चर्य की बात यह थी कि हिन्दू मंदिरों की तरह ना तो कोई भजन अथवा पाठ करता कोई पुजारी इन स्तूपों में बैठा था अर्थात पूरे स्तूप एक मोन,नीरव शांति के सागर में डूबे हुए थे !प्रत्येक स्तूप जैसे महात्मा बुध के साथ ही तपस्या में डूबे हुए थे।
अधिकांश स्तूपों के दर्शन तो हमने कर लिए थे परन्तु इस बुध धर्म के प्रसार और बुध के महात्मा बुध बनने का कारण अभी तक हम नहीं खोज पाया थे।इस पर अभी मेरे मस्तिष्क में विचारों का झंझावात चल ही रहा था कि तभी रिक्शा चालक ने हमें एक विशेष विशाल,लाल नक्काशीदार पथरों से बने प्रवेश द्वार के सम्मुख खड़ा कर दिया।ये ही बुध का वह स्थान था जहां पर बुध ने ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात आगामी 3 सप्ताह एक विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे अपलक अपने अंतर्मन में झांकते हुए बिताए थे।यही पीपलका वृक्ष, इस के पश्चात् बुध वृक्ष के नाम से सम्पूर्ण बुध धर्म के अनुयाई सहित पूरे प्रसिद्ध हो गया था।इसी वृक्ष की शाखाओं को सम्राट अशोक के पुत्र और पुत्री,चारूमित्रा एवम् महिंद ने पूरे विश्व में उगाकर,बोध धर्म का प्रचार प्रसार किया था।आज भी पूरे विश्व के बुध धर्म के अनुयाई अपने जीवन में कम से कम एक बार बुध गया में आकर,इसी पवित्र वृक्ष के सम्मुख ,महात्मा बुध के चरणों में श्रद्धा के सुमन अर्पित कर, अपने जीवन को धन्य मानते हैं।आज भी पूरे विश्व में बुध धर्म तीसरे स्थान पर विस्तारित है !
बुध के ज्ञान प्राप्ति का साक्षी यह बोधी वृक्ष आज भी इतिहास में दर्ज महात्मा बुध का साक्षी है,जिसके सम्मुख हम खड़े थे तो जिस रोमांच का हम अनुभव कर रहे थे ,उससे हमारे रोंगटे खड़े हो गए थे! इस वृक्ष जिसे अब उनके अनुयाइयों ने चारों ओर से शीशे में मढ़ कर बाहरी ओर से स्वर्ण की कलाकृतियों से सजा दिया था।इसी वृक्ष के एक किनारे पर 80 फुट ऊंचा, एक चौकोर,कई मंजिलों में निर्मित लाल पत्थरों से निर्मित मंदिर खड़ा था,जिसकी बाहरी दीवारों पर महात्मा बुद्ध के सम्पूर्ण जीवन की घटनाएं, विभिन्न मूर्तियों के द्वारा ,प्रदर्शित की गई थी।इस बोध मंदिर का निर्माण कालखंड के विभिन्न अवसरों पर विभिन्न अनुयाइयों, सम्राटों एवम् विभिन्न बोध धर्म के मानने वाले देशों के निवासियों ने निर्मित किया था जिसके चिन्ह आज भी साक्षात दिखाई दे रहे हैं।
वर्तमान मंदिर का पुनर निर्माण, सम्राट हर्षवर्धन द्वारा लगभग 1000 वर्ष पूर्व किया गया था। इस मंदिर के मध्य में एक विशाल पीले रंग की स्मित मुस्कान सहित ,पीले वस्त्र ढांके,भगवान बुध की मूर्ति स्थापित है जिसके सामने शुभ्र कमल विभिन्न पुष्पों के साथ एक अनोखी गरिमा ,शोभा प्रदान कर रहे थे।इस मूर्ति के दर्शनों के लिए कभी ना समाप्त होने वाली दर्शनार्थियों की कतारें लगी हुई थी।प्रत्येक बुध धर्मावलंबी के लिए बोध गया का यह स्थान वहीं मायने रखता है जैसे कि मुस्लिमों के लिए मक्का मदीना या इसाइयों के लिए जेरूसलम या हिन्दुओं के लिए अयोध्या ! इस पवित्र वृक्ष एवम् मंदिर के चारों ओर एक विशाल परन्तु विभिन्न सतहों में फैला, पुष्पों और घने वृक्षों से आच्छादित हरा भरा बगीचा निर्मित था जिस पर दिन के प्रत्येक समय पर ,दर्शनों को आने वाले यात्री,अपने अपने देश के रीति रिवाजों से प्रार्थना एवम् अर्चना कर रहे थे।
तभी हमारी दृष्टि इस मुख्य मंदिर से थोड़ी दूर पर बने एक छोटे परंतु प्राचीन मंदिर पर केन्द्रित हुई,वहां पर भी दर्शनार्थियों कि कतारें लगी हुई थी ।जानकारी लेने पर ज्ञात हुआ कि समय के अंतराल पर बुध धर्म में भी तांत्रिक क्रिया कर्मों का बोल बाला हो गया,जिसके परिणाम स्वरूप बुध धर्म भी दो भागों में विभाजित हो गया ,महायान और व्रज्यान या नव्यान । वज्रयान संप्रदाय में तंत्र क्रिया करने वालों का विशेष महत्व होता है।इन्हीं तांत्रिक बुध अनुयाइयों की तंत्र क्रियाओं की एक अधिष्ठात्री देवी है जिनका नाम है तारा देवी !महात्मा बुध के अलावा, केवल इन्हीं तारा देवी की एक अद्भुत मूर्ति इस पवित्र स्थान पर स्थित है जिस से बुध धर्म पर इनका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है! तारा देवी का बायां हाथ जहां अभय की मुद्रा में है वहीं देवी तारा का सीधा हाथ शीर्ष से ऊपर उठा हुआ है जिनकी हथेली में एक काले रंग का सर्प, जीभ निकले भयंकर मुद्रा में सीधे सामने देखनेवाले को ऐसा नजर आता है कि पूरे शरीर में सिहरन सी उठती है।इसके अलावा इस पवित्र परिसर में अनेक छोटे छोटे स्तूप नुमा निर्माण हैं जो शायद उनके महान अनुयाइयों और पुजारियों के हैं।परिसर के एकदम समीप एक विशाल सरोवर भी स्थित है जिसके मध्य में एक विशाल सर्प की मूर्ति अपने विशाल फन को उठाए हुए निर्मित है ,जिसका निर्माण थाईलैण्ड की तत्कालीन रानी के द्वारा किया गया था।
इसी मंदिर परिसर में एक संग्रहालय भी स्थित है, जिस में महात्मा बुध के जीवन,उनके विहार,स्तूपों,ओर उनके विश्व भर के अनुयाइयों द्वारा, विभिन्न काल खंडों में लिखे गए शीला लेख और मूर्तियों का एक अप्रतिम संग्रह है। इन्हीं कुछ शीला लेखों के अनुसार महान चीनी यात्री ह्वेनसांग की बोध गया यात्रा का वर्णन है जो कि लगभग 800 वर्ष पूर्व लिखे गए थे! ऐसे ही एक प्रदर्शित शिला लेख का हिंदी में अनुवादित लेख, जब हमने पढ़ा तो बुध के महात्मा बुध बनने का रहस्य खुल गया। इसमें बुध के शिशु काल से लेकर अंतिम समय तक का विवरण अंकित था।लेकिन इस शिला लेख में वर्णित कुछ पंक्तियों पर हमारी दृष्टि ठहर गई। इस शिला लेख के अनुसार बोध गया से 10 किलो मीटर की दूरी पर एक स्थित एक प्राकृतिक गुफा में बुध ने जीवन के रहस्यों की खोज हेतु जिसे अब ज्ञान प्राप्त होना भी कहते हैं के लिए कठिन तपस्या करना आरंभ कर दिया।धीरे धीरे उन्होंने भोजन का भी त्याग कर दिया। इसी अवस्था में जब कुछ सप्ताह ही बीते थे कि भूख ओर प्यास से ,बुध, एकदम निढाल हो गए ,यहां तक कि उनमें बोलने की भी शक्ति नहीं बची और शायद वे मृत्यु के नजदीक पहुंच ही गए थे, तभी तपस्या रात बुध के पास गाय चराती सुजाता नाम की एक चरवाहे कि पुत्री आ पहुंची।सुजाता का ध्यान तपस्या करते,कृशकाय बुध पर पड़ी।भूख ओर प्यास से निढाल बुध में अब इतनी भी शक्ति शेष नहीं बची थी कि वे कुछ बोल सकें।उनकी इस दीनदशा को देख कर ,चरवाहा पुत्री सुजाता का हृदय व्याकुल हो गया और वो शीघ्र ही एक बर्तन में गाय के दूध और कुछ चावल को मिला कर बनी खीर को एक बर्तन में रख कर बुध के समीप आई और उन्हें आग्रह पूर्वक इस खीर का भक्षण कराया,जिससे बुध को ये समझ में आ गया कि जीवन यात्रा में केवल तप या तपस्या से कुछ प्राप्त नहीं होता है अपितु जैसे सुजाता ने दया,परोपकार कर केउन्हे भोजन रूपी अमृत से नव जीवन दिया,उसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य अगर परोपकार की भावना से दूसरों के कष्टों को दूर करे तो इस से बड़ा सत्कर्म कोई अन्य नहीं है। फिर तो जैसे बुध को ज्ञान प्राप्त हो गया।बुध ने उसी क्षण संकल्प कर लिया कि वे अपना शेष जीवन मानव मातृ की भलाई,उनके दुखों कष्टों को दूर करने हेतु समर्पित कर देंगे।
हम, बुध जो इस ज्ञान के पश्चात् महात्मा बुद्ध हो गए थे,के सम्मुख हाथ जोड़े,आंखे बंद कर, उस बीते कालखंड की कल्पनाओं में खोने लगे थे जब साक्षात बुध ने मानवमात्र कि भलाई के लिए इसी स्थान पर संकल्प लिया होगा।एक राजपरिवार के सदस्य होने के बाद भी ,मानव मात्र की भलाई हेतु भूखे, प्यासे,यात्राओं के कष्टों को झेलते एक अनजानी राह पर इसी बोध गया से,महात्मा बुध बनने हेतु आगे बढ़ चले होंगे । अब हम बोध गया के उस पवित्र स्थान पर जाने को उत्कण्ठित हो गए , जहां पर जीवन के सार को खोजने हेतु , सन्यासी बुध को सुजाता ने खीर खिलाई थी,जिसके पश्चात वे महात्मा बुध बन गए थे।
सबसे पहले हम उस स्थान पर गए जो की सुजाता का घर था।अब वर्तमान में घर के स्थान पर एक विशाल, लाल पक्की इंटों से निर्मित ,लेकिन भग्न अवस्था में स्तूप बना था।इस स्तूप का घेरा ही लगभग 200 मीटर था,ऊंचाई 40 फीट के लगभग थी,परन्तु इस निर्माण में एक विशेष बात थी कि यह स्तूप मध्य में खाली था! मगर क्यों ,इसका उत्तर ना तो गाइड के पास था और ना ही पुरातत्व विभाग के द्वारा लगाया गया बोर्ड कुछ बता पा रहा था।बहुत देर तक हम कल्पनाओं में डूबने के पश्चात् उस स्थान हेतु रवाना हुए , जहां सुजाता ने बुध को खीर खिलाई थी। कोई 10 किलोमीटर की यात्रा के पश्चात् शहर की चहलपहल से दूर एक शांत ,निर्जन से स्थान पर रिक्शा रुका । एक टीले पर सफेदी से पुते,3 या 4 प्राचीन मंदिरों का समूह ,नजदीक ही छोटा सा सरोवर, और थोड़े से ही यात्री ,एवम् चारों ओर पेड़ों से घिरा, ये हमें बोध स्तूप ना लगकर हिन्दुओं का आश्रम जैसा लग रहा था।एक बहुत ही विशाल वट वृक्ष ने , अपने पूरे वितान को इस सम्पूर्ण आश्रम के ऊपर एक छाते के सदृष फैलाया हुआ था।एक और बात ने हमारा ध्यान आकर्षित किया कि इस स्थान पर आए यात्रियों में कोई भी बुध धर्म का अनुयाई नहीं था,फिर समझ में आया कि वे सब जिस और जा रहें है वह तो वास्तव में एक आश्रम ही है ।
कशमकश चल ही रहा था कि फिर गाइड ने ही सहारा दिया,बताने लगा ” यह महर्षि मातंग ऋषि ओर माता धूमावती का आश्रम है।ये महर्षि सप्तऋषियों में से एक जाने जाते हैं।सामने जो कुंड आप देख रहें है ,वह हजारों वर्ष प्राचीन कुंड है, मान्यता है कि इस कुंड में स्नान करने से संतान की इच्छा पूर्ण होती है। जो भी गया आता है वो इस मातंग ऋषि के आश्रम में भी अवश्य आता है।” वाह ! अनायास ही मिले इस सुअवसर से हम भी आश्रम में प्रवेश कर गए।वास्तव में यह अत्यंत प्राचीन स्थान था, और धार्मिक ग्रंथों में इस मातंग आश्रम का विवरण मिलता है।मंदिर में भगवान शिव और धूमावती के नाम से पार्वती देवी की , काले पत्थर की विशाल परन्तु अत्यंत प्राचीन लगने वाली मूर्तियों के सम्मुख अनायास ही दर्शनार्थी श्रद्धा से नमवत हो जाते थे।पूर्ण संतुष्टि के पश्चात्, फिर बुध के जीवन की ओर ध्यान गया,तो गाइड ने हमें उसके पीछे आने का संकेत दिया।हम चल पड़े ।
“विराट वट वृक्ष की छाया में ,एक मध्य आकर का आयताकार जैसे मंदिर में ,एक स्त्री की मूर्ति जो अपने हाथ से एक बर्तन पकड़े सामने बैठे एक कृशकाय से व्यक्ति की ओर बढ़ा रही है “ये स्त्री ही सुजाता है एवम् उसके सम्मुख कृशकाय से व्यक्ति ही बुध हैं,ये सुनते ही हम जैसे समय के भंवर में झूलते झुलाते,साक्षात उस समय अंतराल में पहुंच गए जब वास्तव में ये महान घटना घट रही होगी! वाह !असाधारण घटना का साक्षी यह साधारण मंदिर ,एक तरफ तो एक नए विशाल धर्म केआरंभ का साक्षी था तो दूसरी ओर दो धर्मों के विभाजन का भी साक्षी था : एक प्राचीन सनातन हिन्दू धर्म ,दूसरे इसी सनातन धर्म की कोख से निकलता बुध धर्म ।इस अद्भुत मंदिर के रंग ढंग आदी को देख कर हमारे उस प्रश्न का उत्तर मिलने लगा था कि क्यों महत्मा बुध को विष्णु के अवतार के रूप में घोषित किया गया होगा ! महत्मा बुध के स्मरण हेतु इसी बोध गया शहर में एक से बढ़ कर एक,विशाल,भव्य स्तूप या मंदिर बने हुए है वहीं जहां बुध, महात्मा बुध बने उस स्थान का जैसे बुध धर्म या उनके अनुयाइयों में कोई महत्व नहीं प्रतीत हो रहा था। ऐसे ही जिस सुजाता नामकी चरवाहे की पुत्री द्वारा खीर खाने के पश्चात् बुध के प्राणों की रक्षा हुई, वे महात्मा बने,उसी बोध गया में इस घटना स्थल और सुजाता का जैसे कोई महत्व ही नहीं है।इसका शायद मुख्य कारण यही होगा की जहां बुध धर्म के अनुयाई, बुध के महत्मा बनने की घटना का श्रेय सनातन धर्म और उसकी अनुयाई , सुजाता को कोई विशेष महत्व नहीं देना चाह रहे होंगे, वहीं शायद सनातन धर्म के अनुयाई बुध के प्रसार का श्रेय लेने हेतु उन्हें विष्णु जी के अवतार के रूप में ही प्रदर्श करने के लिए मजबूर हुए होंगे। कारण कुछ भी रहा हो ,परन्तु दोनों ही धर्मों के व्यक्तिगत कारणों के कारण इतनी महत्वपूर्ण घटना के साक्षी रहे इस स्थान को किंचित मात्र भी महत्व नहीं प्रदान हुआ और ये आज एक गुमनामी और उपेक्षा की हालत में है। मै इसे अब मंदिर ना कह कर आश्रम कहूंगा,क्यों कि इस के चारों फैली निरवता,हरियाली, घने वृक्ष और पक्षियों की चहल पहल इस आश्रम को अपूर्व गरिमा प्रदान कर रही थी। मै इस लेख को पढ़ने वाले पाठकों से अनुरोध करूंगा कि हमारे देश, और देश के इस गौरव शाली,पवित्र स्थल को ,इसके देवीय प्रभाव को आत्म सात करने एक बार अवश्य इस स्थल पर आएं और साक्षी बने उस समय के ,जब बुध ,महात्मा बुध बने !
इस यात्रा के पश्चात् मैने शायद सब कुछ विस्मृत कर के ,बस एक ही संदेश को आत्मसात किय है “बुध शरणम् गच्छामि” ।
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