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    पुणे पंढरपर, महा यात्रा

    पूर्व की अपने यात्रा वृतांत में , मैं ,महाराष्ट्र स्थित पंढरपुर : श्री विट्ठल जी की यात्रा की, अपने स्वयं के अनुभवों को लिख ही चुका हूं, परंतु आज मैं आपको ,इसी पंढर पुर में स्थित “” विट्ठल ” जी की एक महायात्रा का महत्व ,आंखों देखी ,एवम पूरे महाराष्ट्र ही नही ,शायद पूरे भारत की ,सबसे बड़ी ,सबसे लंबी दूरी की तथा ,महाराष्ट्र राज्य से मान्यता प्राप्त  ,राजकीय यात्रा , पंढर पुर की यात्रा ,जो पुणे ,महाराष्ट्र से आरंभ होती है 

    और ,यहां से दो सौ किलोमीटर से भी अधिक दूर, बीस दिनों तक चलने वाली, सैकड़ों नही, हजारों नही ,बल्कि पांच लाख से अधिक यात्रियों की पैदल यात्रा, जो की ठीक “”आषाढ़ी एकादशी “”, अर्थात, जुलाई के घोर बरसात के बीच, पंढर पुर स्थित ,सबसे अधिक, मान्यता वाले भगवान ” श्री विट्ठल जी “” के मंदिर की परिक्रमा एवम उनके दर्शनों के पश्चात, पूरी धूम धाम के साथ पूर्ण होती है, के बारे में बताने का प्रयत्न करूंगा ।

    तो लीजिए ,मेरी आंखों देखी ,इस महान “” आषाढ़ी पालकी महा यात्रा  “” का अनुभव ! 

         

     पुणे महाराष्ट्र के अपने ,वर्षाकाल के निवास के दौरान ,मैने गौर किया कि जून माह के अंतिम सप्ताह में ,पूरा पुणे शहर एक विशाल महा यात्रा की तैयारी में जुटने लगा है ।पहले मुझे कभी कभी टी वी पर ,इस पंढरपुर की यात्रा के बारे में ,संक्षिप्त में बताया और दिखाया जाता था ,इसी लिए आज भी अधिकांश उत्तर भारतीय ,महाराष्ट्र की ,इस पूरे भारत की ,सबसे लंबी पद यात्रा के बारे में बहुत ही कम जानकारी रखते है ।

     

    संयोग से मैं इस समय पुणे शहर में ही था ,जब इस यात्रा का आरंभ हो रहा था ,तो मैने ये उचित समझा कि आप ,सुधि पाठक भी इस महा यात्रा के बारे में जानकारी प्राप्त करें एवम हो सके तो ,जीवन में एक बार ,साक्षात दर्शन देने वाले भगवान श्री कृष्ण ,जिन्हे यहां श्री ” विट्ठल ” के नाम से पुकारा जाता है के ,प्रगट स्थल ,”” पंढर पुर” की यात्रा अवश्य करें ,ताकि आपको भक्त और भगवान के प्रेमपूर्ण संबंध का ज्ञान हो सके ।साथ ही पूरे भारत का ये एकमात्र कृष्ण मंदिर हैं जहां उनकी मूर्ति ,उनकी पत्नी देवी रुकमणी जी साथ स्थापित है ।

       

     

     पुणे में देहु ग्राम आकुर्दी के पास संत ज्ञानेश्वर  ,एवम आलंदी नाम के ग्राम के पास संत तुकानाथ जी के प्रसिद्ध मंदिर हैं जहां आज भी उनकी चरण पादुकाएं रखी हुई है ।मान्यता है कि ये दोनो संत भगवान श्री विट्ठल जी के अनन्य भक्त थे ।इसी कारण श्री विट्ठल जी ने उन्हे पंढर पुर ,जो कि महाराष्ट्र के प्रसिद्ध शहर सोलापुर के समीप है साक्षात अपनी पत्नी रुकमणी देवी के साथ दर्शन दिए थे

     

    ।इसी स्थान पर श्री विट्ठल जी एवम रुकमणी देवी का एक  भव्य ,विशाल ,मंदिर ,भीमा नदी के किनारे बना हुआ है ।

     

    इसी मंदिर के मुख्य गर्भ गृह के सामने बनी सीढ़ियों में ,दोनो संतों ने समाधि ली थी ,ताकि भगवान विट्ठल जी दर्शन करने के लिए जाने वाले भक्त उनकी समाधियों पर पैर रख कर जाएं ।भक्ति की ऐसी अद्भुत भावना का प्रदर्शन शायद ही कहीं और मिले ।

     पुणे में स्थित ,आकुर्डी एवम आलंदी मंदिरों से उनकी चरण पादुकाएं एक भव्य ,सजी धजी ,विशाल पालकी में रख कर ,महाराष्ट्र के सबसे उच्च किस्म के ,एक दम सफेद बेलों की जोड़ी से खींच कर , पंढर पुर स्थित मंदिर में ,प्रति वर्ष ,आषाढ़ के माह में ले जाई जाती है ,जिसके साथ इस पूरी तक ,लाखों लोग ,मान्यता पूर्वक ,नाचते , गाते ,धार्मिक चिन्हों ,चित्रों के साथ ,मार्ग की अनेकों कठिनाइयों को सरलता पूर्वक सहते ,चलते रहते हैं ।

     

    एक तरफ जहां महाराष्ट्र की सरकार इन यात्रियों ,जिन्हे महाराष्ट्र में “” वारकारी “” कहते है की सुरक्षा ,देखभाल ,पानी भोजन आदि की व्यवस्था में पूरे समय लगी रहती हैं तो वहीं ,जहां भी ये यात्रा रात्रि विश्राम करती है 

     

    आसपास के गांव ,कस्बे ,शहर ,पूरी सामर्थ्य ,सेवा भावना से इन यात्रियों ” बरकारियों ” की भोजन ,आदि अन्य साधनों से सेवा करने में जुट कर अपने को धन्य मानते हैं ।     

     

    जंगलों ,पहाड़ों ,घाटियों ,खराब मौसम ,बरसात के बाद भी होने वाली असुविधाओं को नजर अंदाज करते हुए सारे के सारे वारकारी,यात्री ,अपने इष्ट के दर्शनों के लिए लालायित रहते है ।एक तरफ इन यात्रियों की सेवा में पूरा महाराष्ट्र जुट जाता है ,वहीं चरण पादुकाओ वाली पालकी को खींचने वाले बैलों की जोड़ियों की भी हर तरीके से देख भाल की जाती है ।

       

     

    इस सम्पूर्ण दो सौ किलोमीटर की यात्रा के मध्य ,भक्त जन अपनी अपनी मान्यताओं के अनुसार ,नंगे पैर , सिर पर तुलसी जी के पौधे को पीतल या चांदी के गमले में रख कर ,अपने अपने समाज ,कुटुंब के धार्मिक प्रतीक चिन्हों के साथ ,कष्ट सहते हुए ही चलते हैं ।

     

    जमीन पर ही सोना ,सात्विक भोजन एक समय ही करना ,धार्मिक प्रतीक चिन्हों एवम तुलसी के पौधे को जमीन पर नहीं रखना,इनके मूल संकल्प हैं

     

     विश्वास कीजिए इतनी कठिन संकल्पों वाली यात्रा, शायद ही भारत में कहीं और की जाती हो !

    एक बात और ,इस यात्रा में शामिल ,यात्रियों की,  एक छोर से ले कर अंतिम दूसरे छोर की लंबाई ,जिसमे भक्तजन यात्रा करते है ,दस किलोमीटर से भी अधिक रहती है ।

     

       

     

     इस प्रकार लगातार चलते चलते ,”” आषाढ़ी एकादशी “” के पवित्र दिन पर ,यात्रियों से भरी ये पवित्र ,चरण पादुका पालिकी , पंढर पुर स्थित  श्री विट्ठल जी के विशाल मंदिर के सम्मुख पहुंचती है ।

     

    उस समय , पंढर पुर ही नही आस पास के गांव कस्बों ,शहरों के भी लाखों निवासी इस पालकी के स्वागत के लिए एकत्रित हो जाते हैं ।

     

    पंढर पुर शहर के बाहर ही अनेकों बैंड बाजे ,भक्तिमय संगीत गाते बजाते , वाले इस यात्रा के आगे चलते हुए ,पूरी यात्रा को पालकी सहित सबसे पहले पूरे विट्ठल मंदिर की परिक्रमा लगवाते हैं ।

     

    इस परिक्रमा में ,आस पास के सैकड़ों निवासी भी मान्यता के कारण ,अपने अपने समाज की पालाकियो के साथ सम्मिलित हो जाते हैं ।

     

    पूरा शहर उस समय भक्ति की एक अनोखे रंग में डूब जाता है ।ऐसा लगता है कि जैसे ये उत्तर भारत में लगने वाला कोई “” कुंभ “” मेला हो ।

       

     

      मंदिर की परिक्रमा के बाद ,मुख्य पुजारी ,पालकी से दोनो संतों के चरण पादुकाएं ,अपने कंधों पर उठा कर  ,मंदिर में स्थापित श्री विट्ठल जी की मूर्ति के सम्मुख रख देते है ।

       

     

    इस प्रकार ,लगातार बीस दिनों तक चलने वाली इस यात्रा के बाद समस्त भक्त यात्री ,श्री विट्ठल नाथ जी के दर्शन ,परिक्रमा कर ,अपनी यात्रा को ,अपने जीवन को धन्य करते है एवम अगले वर्ष के लिए अपने में एक उत्साह की भावना भर देते हैं ।

       

     जय श्री विट्ठल ,रुकमणी नाथ जी

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    1. प्रिय ऋषि,
      यात्रा का बहुत ही सजीव वर्णन किया है और मुझे विश्वास है कि ऐसा वर्णन आप ही कर सकते हैं। ब्लॉक पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे मैं उस यात्रा का एक सहभागी हूं। यात्रा का वर्णन करके, इस पुण्य कार्य में मुझे भी भागी बनाने के लिए, ऋषि भाई आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं अब तक समझता था कि कांवड़ यात्रा एक कठिन संकल्प है परंतु पादुका यात्रा के बारे में जानकार ज्ञान में और वृद्धि हो गई।

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