नांदेड़ से चली मेरी ट्रेन ठीक सुबह पांच बजे सिकंदराबाद रेलवे स्टेशन पर पहुंची ।इस समय , मैं ,कल की भागदौड़ और रात के” ऐसी” डिब्बे की शांति में ,गहरी नींद में डूबा हुआ था ।वो तो स्टेशन पर उतरने वाले यात्रियों के शोर से मेरी आंख खुली ,स्टेशन देख मैं भी हड़बड़ाहट में ही उतरा ।प्लेटफार्म पर खड़े होने पर कुछ मिनट मैने नींद की खुमारी को पूरी तरह भागने में ही लगाए ।जब चेतनता आई ,तब स्टेशन से बाहर निकलने के लिए आगे बढ़ा ।
इस शहर में मेरे बहनोई एवम बहन रहती हैं ,इस लिए मैं इतनी अधिक बार पूर्व में यहां आ चुका हूं ,यहां के सारे घूमने के स्थान घूम चुका हूं ,इस लिए ,अब हैदराबाद में मेरा कोई घूमने का आकर्षण नही था ।वो तो नांदेड़ की लगातार होती बारिश से निजात पाने के लिए , मैं ,एक दिन के लिए ,यहां ,हैदराबाद आ गया था ।
हैदराबाद की अगर सबसे बड़ी कोई पहचान है तो वो दो ही हैं ,एक ,चारमीनार तो दूसरा ,यहां की ” दम बिरियानी ” , और वो भी केवल एक ही होटल या रेस्टोरेंट की ,जो सौ वर्ष से भी अधिक पुराना है , और जहां भारत की लगभग सभी हस्तियां एक बार ,इस होटल की ” बिरयानी ” का स्वाद उठाने आ चुकी है ।इस लिए मेरे इस अचानक हैदराबाद आने के बाद बस मेरा एक ही प्रोग्राम था ,”” पैराडाइज ” होटल की बिरयानी खाना ।यूं तो भारत के लगभग हर शहर में बिरयानी के होटल मिल जायेंगे ,कुछ के स्वाद भी लाजवाब होंगे ,पर … हैदराबाद के इस होटल “” पेराडाइज ” की बिरयानी का स्वाद का किसी और शहर की बिरयानी से कोई मुकाबला नहीं है ।
खैर ,सुबह के छः ही बजे थे थे ,जब मैने अपनी बहन के गेट की घंटी बजाई ,कुछ देर बाद जब गेट खुला तो वो हैरानी से चीख ही पड़ी ।दस साल के लंबे अंतराल के बाद ,अचानक जब कोई प्रियजन सामने होता है तो …..!
सुबह के दो घंटे तो हालचाल ,मान मनोव्वल में ही बीत गए ।इतनी देर के बाद भी वे मेरे अचानक यहां आने से हैरान थे ।पूरा दिन इधर उधर की बातों में न जाने कब बीत गया पता ही नही चला ।शाम होते ही मेरे भांजेश्री अश्विन बोले ,चलो आपको हैदराबाद घुमाने ले चलते हैं ,मगर मैने प्यार से इंकार करते हुए कहा , कि मेरा यहां दो दिन का प्रोग्राम है ,इस लिए आज तो केवल आप लोगों के साथ ,पुरानी यादें ताजा करते हुए ही बिताऊंगा,साथ ही , मैं हैदराबाद इतनी अधिक बार सा चुका हूं कि कहीं और जाने की इच्छा बिल्कुल नही है ।कल बस मुझे एक ही काम करना है , और वो है ” पैराडाइज ” की बिरियानी का स्वाद लेना । मैने तभी गौर किया कि पैराडाइज का नाम लेते ही उन सबके चेहरे पर एक अजीब सा भाव आया ,कुछ देर के मौन के बाद जीजाश्री बोले ,हम तुम्हे पैराडाइज से भी अच्छी जगह बिरियानी खिलाएंगे ,पर प्रतिवाद करते हुए मैने कहा ,जी नहीं ,मुझे तो पैराडाइज ही में खाना है तो वे सब मौन हो गए ।
नांदेड़ में जहां लगातार होती बारिश से मैं पूरी तरह आजीज आ गया था ,वहीं यहां हैदराबाद में बारिश बिल्कुल बंद थी , हां , बादल छाए हुए थे ,ठंडी तेज हवाएं मौसम को और भी सुहाना बना रही थी ।आज का पूरा दिन मैने घर में खाते पीते और आराम करते बिताया ।
अगले दिन ,दोपहर तक का समय कब बीत गया पता ही नही चला ।शाम के चार बजे ,भांजे श्री बोले ,चलो आपको पैराडाइज ले चलते हैं ,उस से पहले आपको थोड़ा नया हैदराबाद घुमाते है।बस फिर क्या था , कार निकाली और चल दिए नया हैदराबाद देखने ।अब नए हैदराबाद के नाम से उलझिए नही ।इसका मतलब है “”हाईटेक सिटी”” जिसे साइबर सिटी भी कहते है ,जैसे की गुड़गांव में ,बंगलोर में या पुणे में ।
मेरा विचार था कि हैदराबाद की साइबर सिटी भी गुड़गांव या पूना की तरह ही होगी ,पर जैसे जैसे हमारी कार यहां की सड़कों पर आगे बढ़ती गई ,मेरी आंखे विस्मय से चौड़ी होती गई ! इस के सामने तो गुड़गांव या पूना की साइबर सिटी कुछ भी नही थी ।उन सब से, चार गुना से अधिक विस्तृत, विस्तार वाली हैदराबाद की ये साइबर सिटी थी ।
भारत ,चीन ,जापान ,सिंगापुर ,हांगकांग तो छोड़िए पूरी दुनिया की कोई भी आई टी ऑफिस ,ट्रेनिंग सेंटर ,यहां तक कि दुनिया के सबसे बड़े ऑफिसों जैसे अमेजन ,नेटफ्लिक्स ,या सभी बड़े प्राइवेट बैंकों के ऑफिस ,जिनमे हजारों हजार कर्मचारी ,यहां कार्य करते हैं ,ट्रेनिंग करते है, और यहीं उनके मुख्यालय भी स्थित हैं । मीलो लंबी , शानदार , चम चमाती,सजी धजी चौड़ी सड़कें।,हर कौने तक फैली मेट्रो ,बड़े बड़े शिशेदार ,आधुनिकतम गगनचुंबी बिल्डिंग्स ,संक्षेप में ये एक दम आधुनिक ,नई दुनिया , की तरह , लगता ही नहीं था कि ये हैदराबाद का नही बल्कि ,हमारे भारत का ही हिस्सा है ।
ये सब इतना आधुनिक था की उसका वर्णन करना यहां संभव ही नहीं ।इसको जब तक आप स्वयं जा कर नही देखेंगे ,विश्वास नहीं करेंगे ! एक अनूठे गर्व की भावना से ओतप्रोत होता हुआ ,मंत्रमुग्ध सा मैं दो घंटे से भीं अधिक समय तक इस साइबर सिटी में घूमता रहा जब तक की हमारी कार इस हाईटेक सिटी से बाहर निकल कर एक हाई वे पर नहीं जा पहुंची ।
तभी वहां एक बोर्ड दिखा “” बेंगलोर छः सो किलोमीटर “” । मैंने भांजे श्री से पूछा ,अब हम किधर जा रहे हैं ,उसने उत्तर दिया ,बस थोड़ी दूर और चलिए , मैं आपको एक ऐसी जगह ले जा रहा हूं जो कि अब हैदराबाद की शान कहलाने जा रही है !!
हाइवे पर चलते हुए अभी कुछ ही देर हुई थी कि मुझे बाईं ओर ,दूर एक बहुत बड़ी ,पीले रंग की कोई मूर्ति दिखाई दी ।ज्यों ज्यों हम उसके समीप आते गए ,वो और बड़ी ,ओर बड़ी दिखाई देती गई ।जब मुझ से नही रहा गया तो मैने पूछ ही लिया ,ये इतनी विशाल मूर्ति किस की है ,तो जवाब आया ,बस थोड़ी देर और रुकिए ,अभी पता चल जायेगा ।
आगे हाइवे से एक कट पर मुड़ते ही ,अचानक मैं विस्मृत रह गया ।सामने एक बहुत ही बड़े गेट ,जहां पर पार्किंग थी गाड़ी रोकते ही दिखाई दी ,एक गगन चुम्बी , पीले रंग की ,एक सन्यासी की विशालतम ,ध्यान मुद्रा में , खिलते कमल के मध्य बैठी मुद्रा ,एक सन्यासी की प्रभावशाली मूर्ति ! ये इतनी विशाल और ऊंची थी कि उसको देखने के लिए अपने सर को ऊपर उठाना पड़ा। मैं हैरान ,सम्मोहित ,इस मूर्ति को देखता ही रहा देखता ही रहा कि तभी कानों में उच्च स्वरों में भजन की आवाज गूंजने लगी ।मगर भाषा हिंदी की नही ,दक्षिण भारत की थी ।

कार पार्किंग से थोड़ा अंदर प्रवेश करते ही दिखाई दिया ,एक विशाल , लम्बा चौड़ा ,लाल पत्थर का चबूतरा ,जिसे पत्थर का मैदान कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी ।इस चबूतरे के आस पास छोटे मार्ग थे जिनके दोनो ओर हरे हरे पेड़ ,इस की शोभा और बढ़ा रहे थे ।
इस मैदान के अंत में करीब पांच सौ मीटर की लंबाई ,यानी आधा किलोमीटर लंबी , लाल पत्थरों की ही बनी ,नक्काशीदार ,दस फुट से भी अधिक ऊंचाई दीवार सी थी ,जिस के किनारे ,पुराने ,दक्षिण भारतीय मंदिरों की स्थापत्य कला , जैसे ,मंदिरों के शिखर ,खंबे ,विशाल हाथियों से खींचने वाले ,बड़े बड़े पत्थरों से ही बने रथ ,,तो कहीं नमस्कार की मुद्रा में बने विशाल लाल पत्थरों से निर्मित हाथियों के समूह ,तो कहीं जाली दार दरवाजे ,ये सब एक अद्भुत संसार की रचना कर रहे थे ।
इन सब के सौंदर्य को चार चांद लगाती ,ठीक बीच में ,बाहर ही से दिखाई देती ,एक विशाल ,पीली धातु की बनी ,नमस्कार की बैठी मुद्रा में श्री ” रामानुजार्य ,” जी की मूर्ति ।
एक विशाल ,नक्काशीदार इमारत के अंदर ,प्रवेशद्वार था । कमाल ये था कि ये मंदिर परिसर ,जहां प्राचीनता का अनुभव करा रहा था ,वहीं ,इसका प्रवेश द्वार ,एक दम ,आधुनिक ,कंप्यूटर से युक्त ,बड़े बड़े होर्डिंग ,चित्रों से सजा , एसी की ठंडक से ,महकता हुआ था ।ज्ञात हुआ की प्रवेश के लिए टिकट लेनी होगी ।टिकट काउंटर ,शीशे के बने केबिन थे जिनमे महिलाएं ,आश्रम के परंपरा अनुसार साड़ियां पहने ,नम्रता पूर्वक ,स्वागत कर रही थी ।एक तरफ मोबाइल ,समेत किसी भी वस्तु को ला जाना निषेध था ,तो दूसरी तरफ ,वर्षा का मौसम होने के कारण ,या दक्षिण की गर्मियों की तेज धूप से बचने के लिए सैकड़ों ,रंग बिरंगी छतरी निशुल्क उपलब्ध थी ।
हम इस सुविधा से अभी भूत ही थे कि ,जब टिकट की कीमत सुनी ,तो वास्तविकता का अहसास हुआ ।दो सौ रुपए ,प्रति यात्री ! तो अब समझ आया ,इस सुविधा का कारण ,साथ ही ये भी समझ आ गया कि हम किसी ,आश्रम अथवा मंदिर में दर्शन करने नही ,अपितु ,दक्षिण भारतीय मंदिरों की प्रतिकृतियों के अवलोकन के लिए ही जा रहें हैं ।इस लिए चुपचाप टिकट ली ,ओर ,साधारण सी चेकिंग के बाद ,इस के परिसर में प्रवेश कर गए ।

( क्रमश : शेष अगले भाग में )
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हम लोग तो करीब 30- 32 बर्ष पूर्व, जब अंकिता शायद 3-4 बर्ष की रही होगी, इस ऐतिहासिक शहर को घूम कर आएं हैं। आपकी यात्रा के सुंदर और विस्तृत वर्णन से पता लगता है की इस शहर में कितना बदलाव आ चुका है।
आप वैसे भी सुंदर लिखते हैं और आपकी लेखनी से यूं प्रतीत होता है कि जैसे हम स्वयं घूम रहे हैं। धन्यवाद।