पिछले पोस्ट से आगे बड़ते है। ओरछा की दूरी जब बारह किलो मीटर ही रह गई तब मुख्य मार्ग से एक अलग मार्ग आ गाया ।सड़क हालांकि छोटी थी परंतु उसके दोनों और थोड़ी थोड़ी दूर पर बड़े ही शानदार होटल बने हुए थे जो ये जताने को काफी थे कि ओरछा एक बड़ा तीर्थ स्थल ही नही अपितु एक मनोरम घूमने के लिए भी यात्रियों का पसंदीदा शहर है।हमने जब गुगल पर सर्च किया तो हमारे ज्ञान में और वृद्धि हो गई कि ओरछा एक तरफ तो धार्मिक,ऐतिहासिक स्थल के रूप में प्रसिद्ध है तो दूसरी ओर ये नवविवाहित जोड़ों की हनीमून के लिए पसंदीदा स्थल बनता जा रहा है ।और सर्च किया तो पता चला कि ओरछा में प्राचीन दर्शनीय एक सात मंजिला लेकिन अत्यंत दृढ़ किला भी है जिसे यहां के मुगल बादशाह जहांगीर के शासन के स्वागत के लिए ,ओरछा के शासक वीर जू देव द्वारा बनवाया गया था , जिसका नाम जहांगीर किला रखा गया हालांकि वे यहां कभी नहीं आए।साथ ही इस किले के अतिरिक्त एक किला और बनवाया गया था जिसका नाम सावन भादों रखा गया था जो की मध्य प्रदेश में बहने वाली ” बेतवा : नदी के एक दम किनारे पर है।
ओरछा से संबंधित एक कथा भी है कि ओरछा राजदरबार की एक प्रसिद्ध नर्तकी नृत्य में इतनी प्रवीण थी की उसके नृत्य की ख्याति ओरछा से जब दिल्ली सल्तनत के शासक जहांगीर के दरबार तक पहुंची तो जहांगीर उसको अपने दरबार में बुलाने के लिए इतना अधीर हो गया कि उसने राजा विरदेव से उसे दिल्ली के लिए मांग लिया।राजा वीरदेव चूंकि शहंशाह जहांगीर के मित्र थे एवम ओरछा के भविष्य के लिए, ना चाहते हुए भी नर्तकी को दिल्ली दरबार में भिजवा दिया !
इसके अतिरिक्त ओरछा एवम उसके पचास किलोमीटर के अंतर्गत बहुत सारे दर्शनीय स्थल हैं हालांकि अच्छे मार्ग नही होने के कारण अधिकांश पर्यटक अपनी यात्रा ओरछा तक ही सीमित रखते हैं।तो बात हो रही थी नव विवाहित जोड़ों के लिए ओरछा ,एक आकर्षक स्थल इस लिए बनता जा रहा है कि वर्षा ऋतु के मौसम में बेतवा नदी जब इसके प्रसिद्ध किलों के एक दम किनारे से बहती है तो इस समय के मनभावन दृश्यों ,आस पास छाई हरियाली एवम अधिक भीड़भाड़ नही होने तथा बड़ी बड़ी कंपनियों द्वारा उच्च स्तर के होटलों के निर्माण के कारण ओरछा पर्यटन के नक्शे पर एक महत्व पूर्ण स्थान बन कर उभरा है।
बात हो रही थी हमारे ओरछा की यात्रा का ,जिसका प्रोग्राम अनायास ही चित्रकूट धाम के मध्य जाते हुए बन गया था । इस समय सितंबर का आखिरी सप्ताह का समय था ।वर्षा ऋतु विदा हो चुकी थी परंतु उसका प्रभाव उमस के रूप में फैला हुआ था। अतः जब हम ओरछा पहुंचे ,दोपहर के बारह बजे के लगभग समय हो रहा था।सूर्य देव अपनी प्रखर किरणों से चमक बिखेर रहे थे ।हवा की गति एक दम ना के समान थी ,उमस अपने पूर्ण प्रभाव से पूरे ओरछा में हलचल मचा रही थी। अतः जब हमने अपनी कार के ऐसी की शीतलता से बाहर ओरछा की धरती पर कदम रखे, तभी हमे, भयंकर गर्मी एवम उमस से सामना हुआ।पार्किंग से मंदिर की ओर अभी कुछ ही कदम की दूरी तय की थी कि हालत खराब होने लगी।प्रबल इच्छा हुई कि तुरंत किसी होटल के ऐसी में जाकर रुकें ,परंतु पार्किंग वाले ने चेता दिया था कि राजा राम जी के मंदिर के दर्शन ठीक एक बजे के बाद शाम चार बजे तक बंद हो जाते हैं ,इस लिए तुरंत पार्किंग से दो सौ मीटर की ओर मंदिर की ओर हमने कदम बढ़ा दिए ।इसके अतिरिक्त चूंकि ओरछा घूमना हमारे चित्रकूट के कार्यक्रम में नही था ,और हमे शाम तक चित्रकूट धाम पहुंचना ही था अतः सारी परेशानियों को झेलते मंदिर की ओर बढ़ चले।
मार्ग में दोनो तरफ पूजा की सामग्रियों के अतिरिक्त प्रसाद ,चायपानी आदि की छोटी छोटी दुकानें थीं।उमस और गर्मी से बेहाल ,हम तेजी से मंदिर प्रांगण की ओर बढ़ चले जो की काफी विशाल और संगमरमर के फर्श से बना था ।इस के दोनो ओर मंदिर के कार्यालय ,तथा एक आध प्रसाद की दुकानें थी ।एक ओर कोने में जूते रखने के लिए रेक बना था जिसके बाद पाइपों की एक लंबी श्रृंखला थी जो भीड़ के समय यात्रियों के कंट्रोल हेतु बनाई गई थी ,जिन्हे देख कर स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि इस मंदिर की अपने भक्तों के लिए अत्यंत महत्व है।परंतु मंदिर बंद होने समय होने के कारण ,कुछ हम जैसे लेट लतीफ यात्रियों के ही होने के कारण एक सीधी पाइप मार्ग ही खुला था ।जब हमने उन पाइपों की पंक्ति में पहला ही कदम रखा ,तो जूते विहीन पैर होने ,ठीक दोपहर का समय होने के कारण मार्बल का फर्श पैरों को जलाने लगा था ।जलन से बचने के लिए मंदिर के दरवाजे की ओर जैसे हमने दौड़ सी ही लगा ली !
प्रवेश द्वार के दोनो ओर हालांकि यात्रियों के लिए पीने के ठंडे पानी के लिए मशीन लगी हुई थी ,परंतु घड़ी का ध्यान रखते हुए सीधे मंदिर के अंदर प्रवेश कर गए।
अंदर प्रवेश करते ही , जहां तेज धूप से निजात मिली , वहीं मुख्य मंदिर ,उसके अंदर स्थित भगवान की मूर्ति के दर्शनों के लिए,जिनके कारण हमने अपना यात्रा प्रोग्राम बदल दिया था,में भयंकर भीड़ थी ।शायद मंदिर बंद होने के समय नजदीक होने के कारण भीड़ इतनी अधिक थी ।अब चिंता हुई कि कहीं एक बजे के बाद ,हमे दर्शन नही मिलें ,परंतु इस पंक्ति के दोनो ओर खड़े सुरक्षा कर्मियों से बात कर के निश्चिंत हुए कि जितने दर्शनार्थी इस समय तक मंदिर के अंदर प्रवेश कर चुके हैं ,उन्हे दर्शन होने तक मुख्य मंदिर के दरवाजे बंद नही होंगे ।इस संदर्भ में उसने एक बड़ी ही रोचक जानकारी भी दी कि चूंकि इस मंदिर में स्थित भगवान ,यहां एक देवता के रूप ने नही अपितु एक राजा के रूप में स्थापित हैं , अतः वे उनसे मिलने वालों तक के लिए अपना “दरबार” खुला ही रखते हैं।हम श्रद्धा से , और चैन की सांस लेते हुए पंक्ति के अंतिम छोर तक भले ही खड़े थे ,क्योंकि मंदिर में हमारे प्रवेश करते ही उसका दरवाजा बन्द कर दिया गया था , अब हम निश्चिंत खड़े थे ।भीड़ इतनी अधिक ,उसपर भीषण गर्मी ,उमस के होने के कारण छत पर लगे पंखों की हवा का असर पंक्ति में खड़े यात्रियों पर नही के बराबर था।बस एक ही बात की तस्साली थी की हमारा चिर प्रतीक्षित मनोरथ अब कुछ ही समय में पूर्ण होने वाला था।
चूंकि लाइन धीरे धीरे सरक रही थी तो खड़े खड़े हमने अपने चारों ओर दृष्टि घूमनी आरंभ की।मंदिर एक विशाल परकोटे से घिरा था ,जिसके एक और लाल लाल रंग से महल की रसोई लिखा था ।उसके आस पास जितनी भी कोठारिया थी उनमें हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियां लगी हुई थी ।इस रसोई के एक और भंडारा हाल लिखा हुआ था ।अब चूंकि इस भंडारे अथवा प्रसाद भवन में अवश्य ही मंदिर के लिए प्रसाद का निर्माण होता होगा ,क्योंकि आम दर्शकों के लिए उसमे प्रवेश वर्जित था ,हालांकि इस पूरे किले नुमा विशाल मंदिर के हर और पंडे पुजारियों का ही कब्जा था।तभी हमने गौर किया कि कुछ दर्शनार्थियों को पंडों के द्वार ,पंक्तियों से निकाल कर सीधे आगे ,मूर्तियों के दर्शन हेतु ले जाया जा रहा था।हम समझ गए कि यहां भी लक्ष्मी देवी का प्रभाव भावनाओं से अधिक है ! अब चूंकि ये हमारी धारणाओं के विपरीत था ,इस लिए हमने प्रभु के दर्शन उचित तरीके से करना ही उचित समझा ।
लगभग आधे घंटे के पश्चात हमें अपने आराध्य भगवान ,नही नही राजा श्री राम के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।गर्भ गृह की दूरी, ड्योढी से दस फुट की थी परंतु किसी भी प्रकार की विद्युत रोशनी नही होने तथा पारंपरिक दीयों की अल्प रौशनी होने के कारण ,तथा बाहर तेज प्रकाश होने के कारण कुछ पल लगे पूरी तरह मूर्तियों को निहारने में ।मूर्ति एक दम काली , छोटी सी ही थी ,परंतु उसके आसपास एवम पीछे पूरे राम दरबार की मूर्तियां ,दक्षिण भारत की परंपराओं के अनुसार बनी हुई थी,साथ ही उनके श्रंगार ,तिलक ,यहां तक उनके जो मुख्य पुजारी थे वे भी दक्षिण भारत से ही थे ।अभी पूरी तरह दर्शन करे भी नही थे कि आसपास खड़े सुरक्षा कर्मियों ने आगे बढ़ने का संकेत किया ।हम मन ही मन राजा श्री राम के दर्शन कर ,अनुग्रहित होते हुए आगे बढ़ गए।आगे जैसे कि पहले बताया था ,तमाम सारी कोठरियों में विभिन्न देवीदेवताओं के दर्शन करते हम कोने में बने प्रसाद काउंटर पर पहुंचे ।वहां एक पुजारी यात्रियों से पैसे ले कर प्रसाद के साथ साथ ,एक लगा हुआ पान जो कि एक लकड़ी के तिनके से बिंधा हुआ था दे रहा था।हमारा नंबर आने पर जब इस बारे में पूछा तो उसने बताया कि राजा होने के नाते भगवान को दोनो समय प्रसाद के साथ साथ अनेकों लगे हुए पान का भोग भी लगाया जाता है जिसे प्रसाद रूप में आपको निर्धारित शुल्क लेकर, मुख्य प्रसाद जो कि छोटा पैकेट, एक बड़े पैकेट के रूप में होता है, के साथ दिया जाता है।हमने छोटा पैकेट, एक पान के साथ लिया ,अपने माथे से लगाया और आगे बढ़ गए।
गर्मी एवम उमस, साथ ही तेज भूख लगी होने से हम तुरंत मंदिर से बाहर निकले और बाहर बनी दुकानों की ओर बैचेनी से निहारते ,जैसे जैसे आगे बढ़ते गए ,निराश और परेशान होते गए ।छोटी छोटी दुकानें तो बहुत थी ,परंतु ढंग से भोजन की एक भी नही थी ,बैचेनी से और आगे बढ़े तो अपने को चौराहे पर खड़ा पाया।यहां से चारों तरफ दृष्टि डालते गए और निराश होते गए कमाल की बात लगी कि इतने प्रसिद्ध स्थान पर कोई ढंग का , “ऐसी” युक्त कोई भोजन का होटल ही नहीं था।शायद आम दर्शनार्थी तो इन छोटी मोटी दुकानों से अपना काम चला लेते होंगे , और कुछ हम जैसे शायद बड़े सितारों वाले होटलों में , जहां वे ठहरे होते होंगे ,भोजन करते होंगे ,परंतु इस भीषण उमस और गर्मी में हमारी इतनी शक्ति नही बची थी की हम इन्हें दूर तक ढूंढते ! इस चौराहे के एक दम सामने आधा किलोमीटर की दूरी पर ही सात मंजिला, ओरछा के नरेश का किला था जिसे देखने के लिए इतने प्रतिकूल मौसम में भी थोड़े बहुत यात्री चले जारहे थे ,मगर हमारे में इतना दम नहीं था की हम भी उनका साथ देते ! तभी किले से कुछ ही पहले एक रेस्टोरेंट का बड़ा सा बोर्ड दिखाई दिया ,जिसमे बड़े से अक्षरों में लिखा था “” ऐसी भोजनालय “”! विश्वास करें ,हम लगभग दौड़ते से ,उस ऊपर की मंजिल पर बने ,सीढियां तेजी से चढ़ते रेस्टोरेंट के हाल के अंदर ” घुस ” गए ।
आठ दस मेजों के साथ ,होटल एक मध्यम वर्गीय ही था ये ,परंतु *ऐसी* की ठंडक ,अच्छा सा भोजनालय ,ऊपर चलते पंखों की हवा ,जी हां केवल हवा ,को देखते हुए एक खाली मेज के किनारे पड़ी कुर्सियों में धंस गए।भूख अब नियंत्रण से बाहर होने लगी थी ,इस लिए वेटर का इंतजार नही करते हुए ,काउंटर पर बैठे आदमी से ही जोर से कहा “” अरे किसी को ऑडर लेने क्यों नही भेजते “” ।शायद हमारी व्यग्रता को देखते हुए वो खुद ही हमारी ओर आ गया।कोई मीनू कार्ड नहीं होने से , उसने कहा कि हम केवल थाली का ही ऑर्डर लेते हैं ,हमने तुरंत बिना कुछ अधिक देर किए हां में सर हिला दिया।
इतना तो हमे भी पता था कि थाली आने में समय लगेगा ही ,हमने सामने खड़े फ्रिज में से दो ठंडी पानी की बोतलें निकली , और ढक्कन खोल, गले के ,साथ ही पूरे शरीर को तर करने लगे।थोड़ी राहत मिली ,तब हमने हाल का मुआयना किया ,सिर्फ एक ही “”ऐसी”” लगा था जो इस भीषण उमस में मामूली सी ही राहत दे रहा था ,हमने फिर जोर लगा कर काउंटर पर बैठे आदमी से कहा कि अरे यार ,इतने बड़े हाल में एक ही ऐसी लगाया हुआ है, क्यों नहीं और “ऐसी” लगाते हो,पर ना तो इसका उसके पास कोई उत्तर था , और न ही हमें उत्तर मिलने की आशा थी !
थोड़ी ही देर में भोजन की थाली हमारे सामने आ गई ।इसे देख एक पुरानी कहावत याद हो आई “” नाम बड़े पर दर्शन छोटे “” ,परंतु कोई और हल नहीं होने से हम भोजन पर जैसे टूट ही पड़े !
भोजन के बाद नीचे उतर हम गर्मी एवम उमस से बेहाल होते हुए, अब सीधे किले की ओर ,ना चाहते हुए भी बढ़ चले कि फिर ना जाने कब ओरछा आना हो।
टिकट ले कर जब किले में प्रवेश किया तो हमने सर पीट लिया ।प्रवेश द्वार के अंदर जाते ही हमारे बाईं ओर एक बढ़िया रेस्टिरेंट नजर आया जो शीशों ,हरियाली से एकदम चकाचक था।कुढ़ते हुए ,पूरी ताकत जुटाते हुए किले के और अंदर प्रवेश किया। किले का रखरखाव एक दम नही के समान था।
खेर ,पूरे विपरीत मौसम में भी हमने किले के अंदर फिर ऊपर सात मंजिलों तक जाना ही था सो पहले अंदर प्रवेश किया ।ये किला एक विशाल ,महलनुमा ,शानदार और दर्शनीय था।बेहद मोटी मोटी दीवारें ,बड़े बड़े दालान ,अनेकों छोटी बड़ी कोठरियां सब अदभुत थी।किले के ठीक मध्य में एक विशाल खुला प्रांगण था जिसके ठीक मध्य में एक दो फुट ऊंचा ,आयताकार आंगन था ।अभी हम इस अद्भुत सरंचना के बारे में सोच ही रहे थे कि बगल में खड़ा एक गाइड की आवाज हमे सुनाई दी जो एक ग्रुप को संबोधित का रहा था “” यही वो बड़ा चबूतरा है जिसमे प्रायः शाम को राज नर्तकी अपने नृत्य एवम साथी संगीत कारों के साथ राजा विरामदेव के साथ उनकी रानियों का मनोरंजन करती थी।ये नर्तकी नृत्य एवम गायन में इतनी प्रसिद्ध थी कि दिल्ली के शहंशाह तक उसकी नृत्य की प्रसिद्धि जा पहुंची , और उसने ओरछा के अपने मित्र राजा से उसे दिल्ली दरबार के लिए मांग भी लिया था ,वो तो दिल्ली में कुछ विशेष राजनीतिक सरगर्मियो के कारण उसका दिल्ली जाना रुक गया था।
ये सब इतना भव्य एवम अनोखा था कि हम प्रतिकूल मौसम होने के बाद भी उस महल में ,किले में, भूत काल में अपने को जाने से नही रोक पा रहे थे।तभी हमारे साथी , जे पी भाई ने हमें ऊपर सातवीं मंजिल पर जाने के लिए टोका तो जैसे हम स्वप्न से जाग उठे ।
ऊपर ,प्रत्येक मंजिल तक जाने के लिए किले के चारों ओर इतनी टेढ़ी मेढी ,बड़ी बड़ी सीढियां बनी थी कि उन पर चढ़ते हुए हम दोनों को लखनऊ की भूलभलाइयां का स्मरण हो आया।सच बताएं सातवीं मंजिल तक जाते जाते हम गर्मी ,उमस और पसीने से लथपथ हो गए।सातवीं मंजिल पर पहुंच कर जब ऊपर से नीचे देखा तो हैरान रह गए।भारतीय पर्यटन की वेबसाइट एवम अन्य फोटों में ये दिखाया जाता है कि इस किले के एक दम किनारे ,पानी से लबालब भरी बेतवा नदी ,उसके दूसरे किनारे पर छाई मनमोहक हरियाली ,साथ ही शाम का डूबता सूरज ये एक दम मनमोहक लगता है पर वास्तविकता में हमें ऊपर से बेतवा नदी तो दिखाई दे रही थी परंतु एक दम सुखी ,उथले पानी वाली नदी और दूसरे किनारे पर हरियाली तो थी परंतु इतनी नही की हम मंत्रमुग्ध हो जाएं ! अब हमने तो यही सोच कर दिल को समझा दिया की हो सकता है इस वर्ष यहां वर्षा काम हुई होगी ! फिर भी आपसे अनुरोध है कि ओरछा इतना सुंदर है की लाइफ में एक बार तो यहां आना बनता ही है ! ये सब और ज्यादा इस लिए महसूस हो रहा था कि इतने ऊपर पहुंच कर भी हवा बिल्कुल ही थमी हुई थी। और हां ,इस गर्मी की तीव्रता का अहसास आपको कराने के लिए ये बताना जरूरी हो गया कि हम अपने साथ ,फोटो ,वीडियो खींचने के लिए स्मार्ट ,आधुनिक मोबाइल लाए थे ,वो भी एक ,दो फोटो या वीडियो खींचते ही अपने आप बंद हो जाता ,स्क्रीन पर आए उसके इस संदेश के साथ कि ( It’s too hot to function normally ) अत्यधिक गर्मी के कारण मोबाइल काम नहीं कर पा रहा । अब आपको ये बतादें कि हम लगभग पुत्र भारत में घूमते रहें है ,कई स्थानों पर मौसम भी प्रतिकूल रहा है पर कहीं भी हमारे मोबाइल ने काम करना बंद नही किया था।इस लिए आप पाठकों से निवेदन है कि आप जब भी ओरछा जाएं ,जरूर जाएं ,परन्तु उमस के मौसम में तो बिलकुल ही नही जाएं !
ऊपर हम दस मिनट से अधिक नही बैठ पाए और लुढ़कते पड़ते ,नीचे उतर सीधे पार्किंग में खड़ी अपनी कार की ओर लपके ,! कार में घुसते ही उसका ” ऐसी ” पूरी ताकत से चला दिया।सच कहें ,खड़ी कार के अंदर ,”ऐसी ” की ठंडाई में हमें ठंडे होने में भी पंद्रह मिनट से अधिक ही लगे होंगे,तब जाकर हम अपनी अगली मंजिल चित्र कूट की तरफ चलने की हिम्मत जुटा पाए !
चित्रकूट तक की यात्रा अगले पोस्ट मे जारी रहेगी।
बड़ी सुंदर स्थान है ओरछा और आपकी लेखन शैली और अच्छा विवरण प्रस्तुत करती है। हम लोग भी झांसी से जा चुके हैं पर कई बरसों पूर्व।
लिखते रहें। पढ़ने में आनंद आता है।
Beautifully written, can’t wait for part 3